Saturday

#12

छोड़ भी दे इन बातो को
जिनपे तू रुस्वा होती है
इन यादो को उन वादों को
जिन्हें सोच-सोच तू रोती है
मन पीड़ित है तो सोच ज़रा
क्यों खुदको कोई झुकाएगा?
जब जानता है की डूबेगा
फिर सागर मे क्यों जाएगा?
यू हार के ऐसे बैठी है
मन मार के ऐसे बैठी है
कोई शस्त्र उठा ना रक्त बहा
किस वार से ज़ख़्मी रहती है?
 बड़ आगे जीवनधारा में 
उस रब को तुझसे आशा है
ये हार सही पर अंत नहीं
अभी बहुत बचा तमाशा है 
पा जीत नई कर प्रीत नई
की वक़्त अभी भी बाकी है
कुछ खोये तूने राहो में
कुछ गीत अभी भी बाकि है।

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